Tuesday, May 20, 2008

बेशरम की संटी

आज शाम को थाने में बैठी थी....तभी वहाँ एक चोर को पकड़ कर लाया गया! पेशेवर चोर था और चोरी का काफी सामान भी उसके पास मिला खैर मैं उसे टैकल करने बैठी...वो काहे को कुछ बताने चला !मैंने एक डंडा उठाया और उसके हथेली में मारा लेकिन उसने झट से हट पीछे कर लिया...मेरा वार खाली गया! अचानक मेरी हंसी छूट गयी....उसका हाथ खींचना और मेरे डंडे का वार खाली जाना अचानक मुझे अपने प्राइमरी स्कूल में खींच ले गया!

मैं और मेरी छोटी बहन मल्लिका सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ते थे! स्कूल में सहपाठियों को भैया बहन पुकारा जाता, अध्यापकों को आचार्य जी बुलाते! जिसका अपभ्रंश कर हब सभी अचार जी बुलाते! हमारे स्कूल के ठीक पीछे एक बड़ा सा नाला हुआ करता था और उसके किनारे किनारे फैली बेशरम की झाडियाँ स्कूल की दीवार को ढकती थीं! बेशरम की संटी हमारी सबसे बड़ी दुश्मन थीं और आचार्यजियों के आकर्षण का केन्द्र! हर क्लास में चॉक डसटर के साथ ही एक हरी संटी भी रखी रहती एक आले में! अगर संटी सूख जाए तो मार खाने में थोडा अच्छा लगता था, कम असर होता था पर हरी संटी ऐसी फनफनाती पड़ती कि तबियत भी हरी हो जाती!

ऐसा कोई माई का लाल नहीं था क्लास में जिसने वो संटियाँ नहीं खाई हों! और संटी खाने का लगभग हर रोज़ एक सा तरीका होता! आचार्य जी प्रश्न पूछते खडा करके...हाथ में संटी फन फनाती रहती! उसे लहराते देखके याद कर कराया भूल जाते!
होमवर्क नहीं किया आज भी, चलो हाथ आगे करो"
इस बार छोड़ दो आचार्य जी कल पक्का पूरा सुना दूंगा!" बच्चे रिरियाते से बोलते!
नहीं...हाथ आगे करो जल्दी" आचार्य जी को भी संटी फटकारने में बड़ा मज़ा आता! कई बार तो मुझे लगता कि शायद संटी मारने के लिए ही आचार्य जी ने इस स्कूल में नौकरी की है!
हाथ आगे आता, रुक रुक कर आधा खुलता ,संटी पड़ती इसके पहले ही पीछे अपने आप खिंच जाता!
साँय की आवाज़ गूँज जाती...सब बच्चे समझ जाते ..संटी हवा में पड़ के रह गयी! जब हाथ में पड़ती तो सटाक के आवाज़ आती!सब मुंह छुपा के हँसते! जब संटी पड़ती ,आँखें अपने आप जोर से मिंच जातीं चेहरा थोडा सा दायें या बाएँ घूम जाता! लेकिन फिर भी दिमाग ऐसा सही जजमेंट करता ..जैसे ही संटी हथेली के पास आती हाथ अपने आप झटके से पीछे हो जाता!आचार्य जी उस समय बौखला जाते और अगली संटी पूरा जोर लगा के मारते!
आचार्य जी सही कह रहे हैं...पूरा याद किया था ,जाने कैसे भूल गए!
बेटा...वोही याद कराने के लिए तो संटी पड़ रही है!' आचार्य जी सिर हिला हिला के कहते!
और हद तो तब होजाती जब जिस को संटी पड़नी हो उसी को तोड़ कर लाने के लिए कहा जाता गोया अपनी कब्र अपने ही हाथ से खुदवाई जाए! जिसको पड़ती वो एक संटी खाने के बाद पीछे पैंट से हाथ मलता...जिससे अगली संटी के लिए हथेली तैयार हो जाए! कभी साँय, कभी सटाक...आचार्य जी को पांच संटियाँ मारने के लिए करीब दस बार संटी फटकारनी पड़ती थी! झूठ नहीं बोलेंगे....हमने भी संटी का स्वाद चखा है! तब तो मज़ा नहीं आता था लेकिन अब याद करके बड़ा मज़ा आता है

5 comments:

mehek said...

:):):):)bahut hi badhiya yaadien,aapke jaisi humne bhi hatheli par chadi ki maar khayi hai:0:),vaise hi haath aage pichhe hota:):)aaj kal ke bachhe masterji ki chadi se bach gaye hai:):)magar wo kya jane uska swad bhi tadka maar ke hota tha,jo hatheli dukhti rehti,ghar par batane ki himmat bhi nahi hoti:):)waqt waqt ki baat hai:).sundar post.

Waterfox said...

हा हा हा बड़ा मज़ा आया पढ़ कर! मैं जब गाँव के स्कूल में था तब ऐसी पतली संतियाँ पड़ा करती थी! शहर के स्कूल में तो मोटा डंडा था!
आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा, मेरे ब्लॉग रोल में स्वागत!

समयचक्र said...

yaade bade sundar dhang se abhivyakt karne ke liye dhanyawaad. badhiya

Shiv said...

बहुत बढ़िया लगा पढ़कर..गाँव के स्कूल की याद ताजा हो गई.

हुकुम, (बुरा मत मानियेगा, हमने देखा है कि बड़े पुलिस अफसरों को लोग इसी शब्द के द्बारा संबोधित करते थे), आपकी यादों की झोली में कितना कुछ है. और उन यादों को शब्दों में ढालने का तरीका लाजवाब है.

Advocate Rashmi saurana said...

bhut sundar. very nice.